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कौन है अंकुश,
इसे मैं भी नहीं पहचानता हूँ. पर, सरोवर के किनारे कंठ में जो जल रही है, उस तृषा, उस वेदना को जानता हूँ. आग है कोई, नहीं जो शांत होती; और खुलकर खेलने से भी निरंतर भागती है. रूप का रसमय निमंत्रण या कि मेरे ही रुधिर की वह्नि मुझको शान्ति से जीने न देती. हर घड़ी कहती, उठो, इस चन्द्रमा को हाथ से धर कर निचोड़ो, पान कर लो यह सुधा, मैं शांत हूँगी. अब नहीं आगे कभी उद्भ्रांत हूँगी. किन्तु रस के पात्र पर ज्यों ही लगाता हूँ अधर को, घूँट या दो घूँट पीते ही न जानें, किस अतल से नाद यह आता, "अभी तक भी न समझा ? दृष्टि का जो पेय है, वह रक्त का भोजन नहीं है. रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं है." टूट गिरती हैं उमंगें, बाहुओं का पाश हो जाता शिथिल है. अप्रतिभ मैं फिर उसी दुर्गम जलधि में ड़ूब जाता, फिर वही उद्विग्न चिंतन, फिर वही पृच्छा चिरंतन , "रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं तो और क्या है? स्नेह का सौन्दर्य को उपहार रस-चुम्बन नहीं तो और क्या है?" रक्त की उत्तम लहरों की परिधि के पार कोई सत्य हो तो, चाहता हूँ, भेद उसका जान लूँ. पथ हो सौन्दर्य की आराधना का व्योम में यदि शून्य की उस रेख को पहचान लूँ. पर,जहां तक भी उडूँ, इस प्रश्न का उत्तर नहीं है मृत्ति महदाकाश में ठहरे कहाँ पर? शून्य है सब और नीचे भी नहीं संतोष, मिट्टी के ह्रदय से दूर होता ही कभी अम्बर नहीं है . इस व्यथा को झेलतआकाश की निस्घूमता फिरताविकल, विभ्रांत पर, कुछ भी न पाता. प्रश्न को कढता, गगन की शून्यता में गूंजकर सब ओर मेरे ही श्रवण में लौट आता. और इतने में मही का गान फिर पड़ता सुनाई, "हम वही जग हैं, जहां पर फूल खिलते हैं. दूब है शय्या हमारे देवता की, पुष्प के वे कुञ्ज मंदिर हैं जहां शीतल, हरित, एकांत मंडप में प्रकृति के कंटकित युवती-युवक स्वच्छंद मिलते हैं." "इन कपोलों की ललाई देखते हो? और अधरों की हँसी यह कुंद -सी, जूही-क़ली-सी ? गौर चम्पक-यष्टि -सी यह देह श्लथ पुष्पभरण से, स्वर्ण की प्रतिमा कला के स्वप्न-सांचे में ढली-सी ?" यह तुम्हारी कल्पना है,प्यार कर लो. रूपसी नारी प्रकृति का चित्र है सबसे मनोहर. ओ गगनचारी! यहाँ मधुमास छाया है. भूमि पर उतारो, कमल, कर्पूर, कुंकुम से,कुटज से इस अतुल सौन्दर्य का श्रृंगार कर लो." गीत आता है मही से? या कि मेरे ही रुधिर का राग यह उठता गगन में ? बुलबुलों-सी फूटने लगतीं मधुर स्मृतियाँ ह्रदय में; याद आता है मदिर उल्लास में फूला हुआ वन याद आते हैं तरंगित अंग के
रोमांच, कम्पन; स्वर्णवर्णा वल्लरी में फूल से खिलते हुए मुख, याद आता है निशा के ज्वार में उन्माद का सुख. कामनाएं प्राण को हिलकोरती हैं. चुम्बनों के चिह्न जग पड़ते त्वचा में. फिर किसी का स्पर्श पाने को तृषा चीत्कार करती. मैं न रुक पाता कहीं, फिर लौट आता हूँ पिपासित शून्य से साकार सुषमा के भुवन में युद्ध से भागे हुए उस वेदना-विह्वल युवक-सा जो कहीं रुकता नहीं, बेचैन जा गिरता अकुंठित तीर-सा सीधे प्रिया की गोद में चूमता हूँ दूब को, जल को, प्रसूनों, पल्लवों को, वल्लरी को बांह भर उर से लगाता हूँ; बालकों-सा मैं तुम्हारे वक्ष में मुंह को छिपाकर नींद की निस्तब्धता में डूब जाता हूँ. नींद जल का स्रोत है, छाया सघन है,
नींद श्यामल मेघ है, शीतल पवन है. किन्तु, जगकर देखता हूँ, कामनाएं वर्तिका सी बल रही हैं जिस तरह पहले पिपासा से विकल थीं प्यास से आकुल अभी भी जल रही हैं. रात भर, मानो, उन्हें दीपक सदृश जलना पडा हो, नींद में, मानो, किसी मरुदेश में चलना पडा हो.
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