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सेवा-निवृत्ति के उपरांत यूँ ही अपनी आत्मा को टटोल रहा था, समय ही समय था। संजोये पैसे से भी ये कमबख़्त ख़ालीपन की भरपाई असम्भव सा था। जुड़ गया अपने ही विद्यालय के एक चैरिटी संस्थान से जिसे पूर्ववर्ती युवा गण बड़े ही तन्मयता और पारदर्शिता से चला रहे थे। हर छोटे-बड़े प्रोजेक्ट पर चर्चायें होती रही, हर गतिविधियों पर मंथन होता रहा, उन युवाओं के लगन दिल को छूती चली गयी। इतने कम पैसों में भी ऊँचे-ऊँचे सामाजिक और मानवीय कामों को कितनी सरलता से ये किये जा रहे थे - ना कोई लोभ, ना ही प्रशंसा की चाह, बस एक धुन और दृढ़ता ही काफ़ी थी इनके लिये - पौधारोपण, बीजों का मुफ़्त वितरण, ग़रीबों में कम्बल वितरण, सफ़ाई अभियान, मेडिकल शिविर कैम्प, पक्षियों को गोद लेना, गरीब क्षात्रों-क्षात्राओं के भविष्य निर्माण - ना जाने कितने ऐसे गतिविधियों को कम से कम पैसों में ये निर्वाह किये जा रहे थे।
चर्चा चली ग्रामीण बच्चियों-महिलाओं के उत्थान का, निकल पड़े सैनिटेरी पैड्ज़ के मुफ़्त वितरण के लिये। जोश था, लेकिन मुद्रा से ठन-ठन गोपाल, अपने पेट काट कर ही पैसों का इंतज़ाम करते हुये आगे बढ़ते गये। पैसों के अभाव और सुनियोजित संगठन-शक्ति की थोड़ी कमी इनके लगन के सामने हार मान लेती थी। मुफ़्त-वितरण में अनवरत कब तक ठठते? ख़याल आया कि थोड़े अनुदान से यदि कोई ऐसी तरकीब हो जिससे न्यूनतम दर पर ग्रामीण बच्चियों और महिलाओं को अनवरत पैड्ज़ मिलता रहे तो मज़ा आ जाये - बस चल पड़े सैनिटेरी पैड्ज़ वेण्डिंग मशीन की ओर - नाम दिया गया संगिनी। ध्यान गया पैड्ज़-प्रयोग के बाद वातावरण और स्वच्छता पर, तभी इन्सिनरेटर को जोड़ा गया अभियान में। आशा थी कि थोड़ी सफलता में ही राज्य सरकारों का ध्यान खींच लेंगे, फिर क्या अभियान स्वतः चल पड़ेगा उनके सहयोग से।
आख़िर कितनी बड़ी है ये समस्या? शुरू में ही कितने पैसे लगेंगे? कितने गावों में लगा पायेंगे? क्या हमारे पास इतने कार्यकर्ता हैं? कौन हमें अनुदान देगा, हमारी साख है ही क्या? इन्हीं प्रश्नों में कुछ दिन जकड़ा रहा। समस्या तो है -
इक्कीसवीं सदी में मात्र ३६% महिलायें स्वस्थ ढंग से अपने माहवारी को निभा पाती हैं, ७०% परिवार आर्थिक विवशता की वजह से ये वंचित रखते हैं अपने महिलाओं को, २३% से ज़्यादा बच्चियाँ स्कूल छोड़ देती हैं माहवारी के कारण। स्वयं को धिक्कारते हुये मुश्किल से पाँच गाँव का प्रण लिया। बीस से अधिक कम्पनियों से बात की, अपनी दरिद्रता और ऊँचे उद्देश्य से उन्हें फुसलाते हुये मोल-भाव कर एक से तय कर लिया। अपनी संस्था के कार्यकर्ता के मनोबल हमारी रीढ़ है, इसी विश्वास से अपने गाँव और परिवार के साथ पिछले सहकर्मियों (जिसके साथ सात जन्मों का रिश्ता सा है) को टटोला। उनकी प्रोत्साहन से अपनी नोबा जीएसआर के कार्यकर्ताओं के बीच भी बात रख दी - पाँच गाँव का ही मामला था, ग़लत होने की आशंका कम ही थी, इसी उद्देश्य से आगे बढ़ लिये।
सुनियोजित रूप से कार्यान्वित करने के लिये एक ढाँचा बनाया गया - गाँव के चयन की प्रक्रिया (आर्थिक स्थिति, शैक्षिक स्तर, संस्था का लगाव), स्थानीय लोगों की सहमति, मशीन का उपयुक्त स्थान जहां महिलायें बेझिझक जा सके, गाँव की महिला कार्यकर्ता गण जो समुदाय में इसकी चर्चा कर सके, गाँव के प्रभारी जो मशीन की सुरक्षा के साथ-साथ उसमें पैड्ज़ भरना, सिक्कों को निकाल कर बैंक में जमा करना इत्यादि। स्वार्थरहित कार्यकर्ता ढाँचे के अनुसार काम करते गये और लग गये ५ गावों में वेण्डिंग मशीन और इन्सिनरेटर।
लाभार्थी बच्चियों और महिलाओं की दुआ रंग लायी - लोगों ने उदारतापूर्वक क्षमतानुसार योगदान करने लगे। कार्यकर्ताओं और दाताओं का मनोबल बढ़ाने के लिये टार्गेट ५ से ५० कर डाला। समय भी चुना विश्व मासिक धर्म स्वच्छता दिवस, २८ मई। जमा योगदान-राशि स्वतः ही बढ़ती गयी - लंगोटिया यार, नोबा बंधुगण, स्टेट-बैंक सबने भरपूर सहयोग कर हमारी क्षमता १५० गावों तक पहुँचा दी।
समय आ गया था कमर कसने की। ग्राम-प्रभारी के ऊपर नोबा प्रभारी जो १० गावों का निरीक्षण कर पैड्ज़ के उपभोग-दर को मापेंगे, डेलिवेरी केंद्र जहां मशीन तथा पैड्ज़ भेजे जाएँगे, और स्थानीय केंद्र जो अंतत: गावों तक मशीन और पैड्ज़ पहुँचायेंगे की परिकल्पना की गयी। इन सबों की ज़िम्मेवारी तय की गयी।
गावों में उद्घाटन के पूर्व नोबा के महिला कार्यकर्ता गाँव की महिलाओं को सम्बोधित कर मशीन के लाभों पर चर्चा करेगी। उद्घाटन समय ग्राम-प्रभारी और उपस्थित महिलाओं को मशीन के प्रयोग का प्रशिक्षण दिया जायेगा।
सफ़र जारी है, ५ गावों की महिलायें लाभान्वित हो रही हैं, २० गाँव अप्रिल में और ३० गाँव २८ मई तक भी लाभ उठा सकेंगे और अंतत: २०० गाँव इस वर्ष के अंत तक।
फूँक-फूँक कर पैर हम रख रहे हैं, जोश है घमंड नहीं, हर पग गिरने का भय है, किंतु आत्मविश्वास है सीख कर उठ जाने की। गावों की संख्या मात्र नम्बर रह गयी, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि कई क्षेत्रों से मित्रगण इसे आगे के जाने को इच्छुक हैं। ६६३ मिलियन महिलाओं वाले इस देश के आह्वान को भला हम कैसे अनसुनी कर दें। २०० गावों का टार्गेट ज़रूर बढ़ेगा, बस अनभिज्ञ हूँ कि कितना बढ़ेगा - ५००, १००० या इससे कहीं ज़्यादा। आपका साथ है, सपने साकार होंगे ही।
कृपया अनुदान करें।
एक कार्यकर्ता, नोबा जीएसआर
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