कुम्भ (मिट्टी का घड़ा) और स्कूली बच्चों में एक अंतर है। स्कूली बच्चे सिर्फ़ ‘बाँहैं चोट’ से नहीं, बल्कि आपको देख-सुन कर भी ‘कढ़ते’ हैं और ‘अन्तर के सहार’ को बड़ी संजीदगी से महसूस करते हैं।हमारा सौभाग्य था कि हमें अपने जीवन के इतने सारे वर्ष ऐसे मनीषियों के सान्निध्य में बिताने का अवसर मिला जिनका आचरण ही एक पाठशाला था। कुछ जिनकी विद्वत्ता आपको अचंभित करती थी, तो कुछ ऐसे जिनका शिल्प आपकी भाषा और व्यक्तिव को जाने-अनजाने सतत गढ़ता रहता था। कांतिजी के बारे में कोई क्या और कितना कहे? माघे सन्ति त्रयो गुणा:। श्रद्धांजलि एक ऐसे शिल्पी को जिसने अपनी छेनी-हथौड़ी से जाने कितनी जिंदगियाँ तराशीं! श्रद्धांजलि एक विद्या-व्यसनी (उन्हीं का शब्द) विद्वान, द्रष्टा और वैज्ञानिक सोच वाले प्रयोगधर्मी गुरु को! श्रद्धांजलि उस कुंभार को जिसने अगर कभी थोड़ी ‘चोट’ दी तो उस से इतना अधिक ‘सहार’ दिया कि हमारी आँखें उनकी यादों से अश्रुपूरित हैं! सच, ‘जीना इसी का नाम है।’ - विभाष मिश्रा
सरल और सही हिंदी का बोध कराने वाले श्रीमान कांति जी को भूल पाना असंभव है।
हमारी कौतूहल और सृजनात्मक ऊर्जा को जिस लगन और विश्वास से उन्होंने प्रोत्साहित किया,उसका असर हमपर और हमारे माध्यम से शायद हमारे बच्चों पर भी रहेगा और यही उनकी आत्मा के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।